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PRITAM PATEL
One of Us (Nirvana)
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Post by PRITAM PATEL » Thu Nov 03, 2016 12:16 am

Hi,
Just found on some other Social media

Please Note, I don't agree or believe what ever is written bellow, but second last paragraph took my attention

Can any one confirm the facts quoted in second last para

regards

pritam patel

धर्म बंधुओ, राष्ट्र के रूप में हमारी समस्या और उसके समाधान पर बहुत कुछ लिखा गया है, लिखा जाता रहेगा। मेरी दृष्टि में सबसे पहले हमें समस्या के पूरे स्कैन, उसकी निष्पत्ति और कारण को भली प्रकार से ध्यान में रखना होगा। तभी इसका समाधान सम्भव होगा।

आपने पूजा, यज्ञ करते समय कभी संकल्प लिया होगा। उसके शब्द ध्यान कीजिये। ऊँ विष्णुर विष्णुर विष्णुर श्रीमद भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञा प्रवर्तमानस्य श्री ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्री श्वेत वराहकलपे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे पुण्यप्रदेशे ......यह संकल्प भारत ही नहीं सारे विश्व भर के हिंदुओं में लिया जाता है और इसके शब्द लगभग यही हैं। आख़िर यह जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे है क्या ? धर्मबंधुओ! जम्बू द्वीप सम्पूर्ण पृथ्वी है। भारत वर्ष पूरा यूरेशिया है। भरत खंड एशिया है। आर्यावर्त वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान है। आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्त बचाखुचा वर्तमान भारत है। आसिंधु सिंधु पर्यन्ता की परिभाषा आज गढ़ी गयी है। यह परिभाषा मूल भरतवंशियों के देश की परिचायक नहीं है।

वस्तुतः जम्बू द्वीप यानी सम्पूर्ण पृथ्वी ही षड्दर्शन को मानने वाली थी और इस ज्ञान का केंद्र ब्रह्मावर्त अर्थात वर्तमान भारत था। काल का प्रवाह आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व ज्ञान और संस्कृति के केंद्र वर्तमान भारत में भयानक युद्ध हुआ। जिसे हम आज महाभारत के नाम से जानते हैं और उसके बाद सारी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गयीं। ज्ञानज्योति ऋषि वर्ग, पराक्रमी राजा कालकवलित हुए। परिणामतः ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास रुक गया। धीरे-धीरे संस्कृति की भित्तियां ढहने लगीं। चतुर्दिक धर्म ध्वज फहराने वाले लोग भृष्ट हो कर वृषल हो गए। परिणामस्वरूप इतने विशाल क्षेत्र में फैला षड्दर्शन की महान देशनाओं का धर्म नष्ट हो गया। अनेकानेक प्रकार के मत-मतान्तर फ़ैल गये। टूट-बिखर कर बचे केवल ब्रह्मावर्त का नाम भारत रह गया। कृपया सोचिये कि सम्पूर्ण योरोप, एशिया में भग्न मंदिर, यज्ञशालाएं क्यों मिलती हैं ? ईसाइयत और इस्लाम के अपने से पहले इतिहास को जी-जान से मिटाने की कोशिश के बावजूद ताशक़न्द के एक शहर का नाम चार्वाक क्यों है ? वहां की झील चार्वाक क्यों कहलाती है ?

इस टूटन-बिखराव में पीड़ित आर्यों { गुणवाचक संज्ञा } का अंतिम शरणस्थल सदैव से आर्यावर्त के अन्तर्गत आने वाला ब्रह्मावर्त यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान और अब वर्तमान भारत रहा है। इसी लिए इस क्षेत्र को पुण्यभूमि कहा जाता है। जिज्ञासु मित्रों को दिल्ली के हिंदूमहासभा भवन के हॉल को देखना चाहिये। उसमें राजा रवि वर्मा की बनायी हुई पेंटिंग लगी है जिसका विषय महाराज विक्रमादित्य के दरबार में यूनानियों का आना और आर्य धर्म स्वीकार करना { हिन्दू बनना } है। ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए ही नहीं अपितु विपत्ति में भी सदैव से भरतवंशी केंद्र की ओर लौटते रहे हैं।

धर्मबंधुओ ! सदैव स्मरण रखिये कि राष्ट्र, देश से धर्म बड़ा होता है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत के अंदर और बाहर 60-70 से अधिक देशों का हिन्दू राष्ट्र होना सम्भावित था। जिसकी केंद्र भूमि भारत को होना था। नेपाल के प्रधानमंत्री राणा शमशेर बहादुर जंग, महामना मदनमोहन मालवीय, लाल लाजपतराय, स्वातन्त्र्यवीर सावरकर इत्यादि ने इसके लिये प्राण-प्रण से प्रयास किया था। उस समय भारत के दो हिस्सों में बंटने की कल्पना नहीं थी बल्कि प्रिंसली स्टेटों के अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में होने की कल्पना थी। कल्पना कीजिये कि यह प्रयास साकार हो गया होता तो भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, सिंगापुर, बर्मा, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मॉरीशस, पाकिस्तान का वर्तमान उमरकोट और न जाने कितने हिन्दू राष्ट्र विश्व पटल पर जगमगा रहे होते।

कृपया नेट पर Yazidi डालिये। आपको ईराक़-सीरिया के बॉर्डर पर रहने वाली, मोर की पूजा करने वाली जाति के बचे-खुचे लोगों का पता चलेगा। कार्तिकेय के वाहन मोर की पूजा कौन करता है ? Kafiristan डालिये। आपको पता चलेगा कि इस क्षेत्र के हिंदुओं को 1895 में मुसलमान बना कर इसका नाम nuristan नूरिस्तान रख दिया गया है। kalash in pakistan देखिये। आप पाएंगे कि आज भी कलश जनजाति के लोग जो दरद मूल के हैं पाकिस्तान के चित्राल जनपद में रहते हैं। इस दरद समाज की चर्चा महाभारत, मनुस्मृति, पाणिनि की अष्टाध्यायी में है। जिस तरह लगातार किये गए इस्लामी धावों ने अफ़ग़ानिस्तान केवल 150 वर्ष पहले मुसलमान किया, हमें क्यों अपने ही लोगों को वापस नहीं लेना चाहिए ? एक-एक कर हमारी संस्कृति के क्षेत्र केवल 100 वर्ष में धर्मच्युत कर वृषल बना दिए गये। होना तो यह चाहिये था कि हम केंद्रीय भूमि से दूर बसे अपने समाज के लोगों को सबल कर धर्मभष्ट हो गए अपने लोगों को वापस लाने का प्रयास करते। भारत के टूटने का कारण सैन्य पराजय नहीं है बल्कि धर्मांतरण है। हमने अपने समाज की चिंता नहीं की। इसी पाप का दंड महाकाल ने हमारे दोनों हाथ काट कर दिया और हम भारत के दोनों हाथ पाकिस्तान, बांग्लादेश की शक्ल में गँवा बैठे।

जो वस्तु जहाँ खोयी हो वहीँ मिलती है। हमने अपने लोग, अपनी धरती धर्मांतरण के कारण खोयी थी। यह सब वहीँ से वापस मिलेगा जहाँ गंवाया था। इसके लिए अनिवार्य शर्त अपने समाज को समेटना, तेजस्वी बनाना और योद्धा बनाना है। यह सत्य है कि विगत 200 से भी कम वर्षों में इस्लाम की आक्रमकता के कारण राष्ट्र, देश सिकुड़ा है। इस कारण अनेकों भारतीयों को स्वयं को ऊँची दीवारों में सुरक्षित कर लेना एकमात्र उपाय लगता है। इस विचार पर सोचने वाली बात यह है कि इस्लाम की आक्रमकता ने भारत वर्ष जो पूरा यूरेशिया था, के केंद्रीय भाग यानी आर्यावर्त { वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान } से पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं हड़पा बल्कि शेष बचे देश में हमारे करोड़ों बंधुओं को धर्मान्तरित कर लिया है। यह चिंतन कि ऊँची दीवारों में सीमाओं को सुरक्षित रखा जाये, से कोई लक्ष्य नहीं सधता। अतः पराक्रम ही एकमेव उपाय है और यही हमारे प्रतापी पूर्वज करते आये हैं। इस हेतु आवश्यक है कि वास्तविक इतिहास का सिंहावलोकन किया जाये। सिंहावलोकन अर्थात जिस तरह सिंह वीर भाव से गर्दन मोड़ कर पीछे देखता है।

महाभारत में तत्कालीन भारत वर्ष का विस्तृत वर्णन है। जिसमें आर्यावर्त के केंद्रीय राज्यों के साथ उत्तर में काश्मीर, काम्बोज, दरद, पारद, पह्लव, पारसीक { ईरान }, तुषार { तुर्कमेनिस्तान और तुर्की }, हूण { मंगोलिया } चीन, ऋचीक, हर हूण तथा उत्तर-पश्चिम में बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा }, शक, यवन { ग्रीस }, मत्स्य, खश, परम काम्बोज, काम्बोज, उत्तर कुरु, उत्तर मद्र { क़ज़्ज़ाक़िस्तान, उज़्बेकिस्तान } हैं। पूर्वोत्तर राज्य प्राग्ज्योतिषपुर, शोणित, लौहित्य, पुण्ड्र, सुहाय, कीकट पश्चिम में त्रिगर्त, साल्व, सिंधु, मद्र, कैकय, सौवीर, गांधार, शिवि, पह्लव, यौधेय, सारस्वत, आभीर, शूद्र, निषाद का वर्णन है। यह जनपद ढाई सौ से अधिक हैं और इनमें उपरोक्त के अतिरिक्त उत्सवसंकेत, त्रिगर्त, उत्तरम्लेच्छ, अपरम्लेच्छ, आदि हैं। {सन्दर्भ:-अध्याय 9 भीष्म पर्व जम्बू खंड विनिर्माण पर्व महाभारत }

भीष्म पर्व के 20वें अध्याय में कौरवों और पांडवों की सेनाओं का वर्णन है। जिसमें कौरव सेना के वाम भाग में आचार्य कृपा के नेतृत्व में शक, पह्लव { ईरान } यवन { वर्तमान ग्रीस } की सेना, दुर्योधन के नियंत्रण में गांधार, भीष्म पितामह के नियंत्रण में सिंधु, पंचनद, सौवीर, बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा } की सेना का वर्णन है। सोचने वाली बात यह है कि महाभारत तो चचेरे-तयेरे भाइयों की राज्य-सम्पत्ति की लड़ाई थी। उसमें यह सब सेनानी क्या करने आये थे ? वस्तुतः यह सब सम्बन्धी थे और इसी कारण सम्मिलित हुए थे। स्पष्ट है कि महाभारत काल में चीन, यवन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सम्पूर्ण रूस इत्यादि सभी भारतीय क्षेत्र थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चीन, त्रिविष्टप, यवन { ग्रीस / हेलेनिक रिपब्लिक } हूण, शक, बाह्लीक, किरात, दरद, पारद, आदि क्षेत्रों के राजा भेंट ले कर आये थे। महाभारत में यवन नरेश और यवन सेना के वर्णन दसियों जगह हैं।

पौराणिक इतिहास के अनुसार इला के वंशज ऐल कहलाये और उन्होंने यवन क्षेत्र पर राज्य किया। यवन या वर्तमान ग्रीस जन आज भी स्वयं को ग्रीस नहीं कहते। यह स्वयं को हेलें, ऐला या ऐलों कहते हैं। आज भी उनका नाम हेलेनिक रिपब्लिक है। महाकवि होमर ने अपने महाकाव्य इलियड में इन्हें हेलें या हेलेन कहा है और पास के पारसिक क्षेत्र को यवोन्स कहा है जो यवनों का पर्याय है { सन्दर्भ:-निकोलस ऑस्टर, एम्पायर्स ऑफ़ दि वर्ड, हार्पर, लन्दन 2006, पेज 231 } होमर ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के कवि हैं अतः उनका साक्ष्य प्रामाणिक है।

सम्राट अशोक के शिला लेख संख्या-8 में यवन राजाओं का उल्लेख है। वर्तमान अफगानिस्तान के कंधार, जलालाबाद में सम्राट अशोक के शिलालेख मिले हैं जिनमें यावनी भाषा तथा आरमाइक लिपि का प्रयोग हुआ है। इन शिलालेखों के अनुसार यवन सम्राट अशोक की प्रजा थे। यवन देवी-देवता और वैदिक देवी देवताओं में बहुत साम्य है। सम्राट अशोक के राज्य की सीमाएं वर्तमान भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, ग्रीस तक थीं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28 भारतीय इतिहास कोष सच्चिदानंद भट्टाचार्य } सम्राट अशोक के बाद सम्राट कनिष्क के शिलालेख अफ़ग़ानिस्तान में मिलते हैं जिनका सम्राज्य गांधार से तुर्किस्तान तक था और जिसकी राजधानी पेशावर थी। सम्राट कनिष्क के शिव, विष्णु, बुद्ध के साथ जरथुस्त्र और यवन देवी-देवताओं के सिक्के भी मिलते हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार, चंद्रगुप्त वेदालंकार, दूसरा संस्करण 1969 }

ज्योतिष ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण { समय-ईसा पूर्व 24 } में उल्लिखित है कि विक्रमादित्य परम पराक्रमी, दानी और विशाल सेना के सेनापति थे जिन्होंने रूम देश { रोम } के शकाधिपति को जीत कर फिर उनके द्वारा विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार करने के बाद उन्हें छोड़ दिया { सन्दर्भ:-पृष्ठ 8, डॉ भगवती लाल पुरोहित, आदि विक्रमादित्य स्वराज संस्थान 2008 }। 15वीं शताब्दी तक चीन को हिन्द, भारत वर्ष या इंडी ही कहा जाता रहा है। 1492 में चीन और भारत जाने के लिए निकले कोलम्बस के पास मार्गदर्शन के लिये मार्कोपोलो के संस्मरण थे। उनमें रानी ईसाबेल और फर्डिनांड के पत्र भी हैं। जिनमें उन्होंने साफ़-साफ़ सम्बोधन " महान कुबलाई खान सहित भारत के सभी राजाओं और लॉर्ड्स के लिए " लिखा है। {सन्दर्भ:-पृष्ठ 332-334 जॉन मेन, कुबलाई खान: दि किंग हू रिमेड चाइना, अध्याय-15, बैंटम लन्दन 2006 }15वीं शताब्दी में यूरोप से प्राप्त अधिकांश नक़्शों में चीन को भारत का अंग दिखाया गया है।

ऐसे हज़ारों वर्णन मिटाने की भरसक कोशिशों के बावजूद सम्पूर्ण विश्व में मिलते हैं। केंद्रीय भूमि के लोग सदैव से राज्य, ज्ञान, शौर्य और व्यापार के प्रसार के लिये सम्पूर्ण जम्बू द्वीप यानी पृथ्वी भर में जाते रहे हैं। अजन्ता की गुफाओं में बने चित्रों में सम्राट पुलकेशिन द्वितीय की सभा में पारसिक नरेश खुसरू-द्वितीय और उनकी पत्नी शीरीं दर्शाये हैं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 238, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार } इतिहासकार तबारी ने 9वीं शताब्दी में भारतीय नरेश के फ़िलिस्तीन पर आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है कि बसरा के शासक को सदैव तैयार रहना पड़ता है चूँकि भारतीय सैन्य कभी भी चढ़ आता है { सन्दर्भ:- पृष्ठ 639, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार }

इतने बड़े क्षेत्र को सैन्य बल से प्रभावित करने वाले, विश्व भर में राज्य स्थापित करने वाले, ज्ञानसम्पन्न बनाने वाले, संस्कारित करने वाले लोग दैवयोग ही कहिये शिथिल होने लगे। मनुस्मृति के अनुसार पौंड्रक, औंड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव , चीन, किरात, दरद और खश इन देशों के निवासी क्रिया { यज्ञादि क्रिया } के लोप होने से धीरे-धीरे वृषल हो गए { मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक 43-44 } अर्थात जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेश के ब्रह्मवर्त यानी तत्कालीन भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान के ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का संस्कृति के केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास थमने लगा। हज़ारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा मंद पड़ी फिर भी नष्ट नहीं हुई मगर लगातार सम्पर्क के अभाव में ज्ञान, धर्म, चिंतन की ऊष्मा कम होती चली गयी। सम्पूर्ण यूरेशिया में फैले आर्य वृषल होते गये।

इसी समय बुद्ध का अवतरण हुआ। महात्मा बुद्ध की देशना निजी मोक्ष, व्यक्तिगत उन्नति पर थी। स्पष्ट था कि यह व्यक्तिवादी कार्य था। समूह का मोक्ष सम्भव ही नहीं है। यह किसी भी स्थिति में राजधर्म नहीं हो सकता था मगर काल के प्रवाह में यही हुआ। शुद्धि-वापसी का कोई प्रयास करने वाला नहीं था। उधर एक अल्लाह के नाम पर हिंस्र दर्शन फैलना शुरू हो गया फिर भी इसकी गति धीमी ही थी। फ़रिश्ता के अनुसार 664 ईसवीं में गंधार क्षेत्र में पहली बार कुछ सौ लोग मुसलमान बने {सन्दर्भ:-पृष्ठ-16 तारीख़े-फ़रिश्ता भाग-1, हिंदी अनुवाद, नवल किशोर प्रेस }

अरब में शुरू हो गयी उथल-पुथल से आँखें खुल जानी चाहिए थीं मगर निजी मोक्ष के चिंतन, शांति, अहिंसा के प्रलाप ने चिंतकों, आचार्यों, राजाओं, सेनापतियों को मूढ़ बना दिया था।अफ़ग़ानिस्तान में परिवर्तन के समय तो निश्चित ही चेत जाना था कि अब घाव सिर पर लगने लगे थे। दुर्भाग्य, दुर्बुद्धि, काल का प्रवाह कि सम्पूर्ण पृथ्वी को ज्ञान-सम्पन्न बनाने वाला, संस्कार देने वाला प्रतापी समाज सिमट कर आत्मकेंद्रित हो गया। वेद का आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के व्यक्तिवादी मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया।

मानव अपने मूल स्वभाव में उद्दंड, अधिकारवादी, वर्चस्व स्थापित करने वाला है। आप घर में बच्चों को देखिये, थोड़ा सा भी ताकतवर बच्चा कमजोर बच्चों को चिकोटी काटता, पैन चुभाता, बाल खींचता मिलेगा। कुत्ते, बिल्लियों को सताता, कीड़ों को मारता मिलेगा। माचिस की ख़ाली डिबिया, गुब्बारे, पेंसिल पर कभी बच्चों को लड़ते देखिये। ये वर्चस्वतावादी, अहमन्यतावादी सोच हम जन्म से ही ले कर पैदा होते हैं। इन्हीं गुणों और दुर्गुणों का समाज अपने नियमों से विकास और दमन करता है। यदि ये भेड़ियाधसान चलता रहे और इसकी अबाध छूट दे दी जाये तो स्वाभाविक परिणाम होगा कि सामाजिक जीवन संभव ही नहीं रह पायेगा। लोग अंगुलिमाल बन जायेंगे। समाज के नियम इस उत्पाती स्वभाव का दमन करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्मवर्त के आचार्यों, राजाओं, ज्ञानियों का यही दायित्व था कि वह सम्पूर्ण समाज में न्याय का शासन स्थापित रखें। इसके लिए प्रबल राजदंड चाहिए और इसकी तिलांजलि बौद्ध मत के प्रभाव में ब्रह्मवर्त यानी वर्तमान भारत के लोगों ने दे दी।

महात्मा बुद्ध के जीवन में जेतवन का एक प्रसंग है। उसमें बुद्ध अपने 10 हज़ार शिष्यों के साथ विराजे हुए थे। एक राजा अपने मंत्रियों के साथ उनके दर्शन के लिये गये। वहां पसरी हुई शांति से उन्हें किसी अपघात-षड्यंत्र की शंका हुई। 10 हज़ार लोगों का निवास और सुई-पटक सन्नाटा ? उनके लिये यह सम्भव ही नहीं था। बुद्ध ही आर्यावर्त में अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके साथ 10 हज़ार शिष्य थे। केवल बिहार में महावीर स्वामी, अजित केशकम्बलिन, विट्ठलीपुत्त, मक्खली गोसाल इत्यादि जैसे 10 और महात्मा ऐसे थे जिनके साथ 10-10 हज़ार भिक्षु ध्यान करते थे। बुद्ध और इनके जैसे लोगों के प्रभाव में आ कर 1 लाख लोग घर-बार छोड़ कर व्यक्तिगत मोक्ष साधने में जुट गये। यह समूह तो आइसबर्ग की केवल टिप है। इससे उस काल के समाज में अकर्मण्यता का भयानक फैलाव समझ में आता है। व्यक्तिगत मोक्ष के चक्कर में समष्टि की चिंता, समाज के दायित्व गौण हो गए। शिक्षक, राजा, सेनापति, मंत्री, सैनिक, श्रेष्ठि, कृषक सभी में सिर घुटवा कर भंते-भंते पुकारने, बुद्धम शरणम गच्छामि जपने की होड़ लगेगी तो राष्ट्र, राज्य, धर्म की चिंता कौन करेगा ? परिणामतः राष्ट्र के हर अंग में शिथिलता आती चली गयी।

इसी काल से अरब सहित पूरा यूरेशिया जो अब तक केंद्रीय भाग की सहज पहुँच और सांस्कृतिक प्रभाव का क्षेत्र था, विस्मृत होने लगा। अरब में कुछ शताब्दी बाद मक्का के पुजारी परिवार में मुहम्मद का जन्म हुआ। उसने अपने पूर्वजों के धर्म से विरोध कर अपने मत की नींव डाली। भरतवंशियों के लिये यह कोई ख़ास बात नहीं थी। उनके लिये जैसे और पचीसों मत चल रहे थे, यह एक और मत की बढ़ोत्तरी थी। भरतवंशियों के स्वाभाविक चिंतन "सारे मार्ग उसी की ओर जाते हैं" के विपरीत मुहम्मद ने अपने मत को ही सत्य और अन्य सभी चिंतनों को झूट माना। अपनी दृष्टि में झूटे मत के लोगों को बरग़ला कर, डरा-धमका कर, पटा कर अपने मत इस्लाम में लाना जीवन का लक्ष्य माना। इस सतत संघर्ष को जिहाद का नाम दिया। जिहाद में मरने वाले लोगों को जन्नत में प्रचुर भोग, जो उन्हें अरब में उपलब्ध नहीं था, का आश्वासन दिया। 72 हूरें जो भोग के बाद पुनः कुंवारी होने की विचित्र क्षमता रखती थीं, 70 छरहरी देह वाले हर प्रकार की सेवा करने के लिये किशोर गिलमां (ग़ुलाम लड़के/लौंडे) शराब की नहरें जैसे लार-टपकाते, जीभ-लपलपाते वादों की आश्वस्ति, ज़िंदा बच कर जीतने पर माले-ग़नीमत के नाम पर लूट के माल के बंटवारे का प्रलोभन ने अरब की प्राचीन सभ्यता को बर्बर नियमों वाले समाज में बदला। यहाँ हस्तक्षेप होना चाहिये था। संस्कार-शुद्धि होनी चाहिये थी। आर्यों ने अपने सिद्धांतों के विपरीत चिन्तन का अध्ययन ही छोड़ दिया। परिणामतः बर्बरता नियम बन गयी। उसका शोधन नहीं हो सका।
यह विचार-समूह अपने मत को ले कर आगे बढ़ा। अज्ञानी लोग इन प्रलोभनों को स्वीकार कर इस्लाम में ढलते गये। इस्लामियों ने जिस-जिस क्षेत्र में वह गए, जहाँ-जहाँ धर्मांतरण करने में सफलता पायी, इसका सदैव प्रयास किया है कि वहां का इस्लाम से पहले का इतिहास नष्ट कर दिया जाये। कारण सम्भवतः यह डर रहा होगा कि धर्मान्तरित लोगों के रक्त में उबाल न आ जाये और वो इस्लामी पाले से उठ कर अपने पूर्वजों की पंक्ति में न जा बैठें। इसके लिये सबसे ज़ुरूरी यह था कि धर्मान्तरित समाज में अपने पूर्वजों, अपने पूर्व धर्म, समाज के प्रति उपेक्षा, घृणा का भाव उपजे। इसके लिए इतिहास को नष्ट करना, तोडना-मरोड़ना, उसका वीभत्सीकरण अनिवार्य था। आज यह जानने के कम ही सन्दर्भ मिलते हैं कि जिन क्षेत्रों को इस्लामी कहा जाता है वह सारे का सारा भरतवंशियों की भूमि है। फिर भी मिटाने के भरपूर प्रयासों के बाद ढेरों साक्ष्य उपलब्ध हैं। आइये कुछ सन्दर्भ देखे जायें।

7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बल्ख़ पर आक्रमण किया। वहां के प्रमुख नौबहार मंदिर को जिसमें वैदिक यज्ञ होते थे, को मस्जिद में बदल दिया। यहाँ के पुजारियों को बरमका { ब्राह्मक या ब्राह्मण का अपभ्रंश } कहा जाता था। इन्हें मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये। वहां के ख़लीफ़ा ने इनसे भारतीय चिकित्सा शास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि का अनुवाद करने को कहा। इसी क्रम में अहंब्रह्मास्मि से अनल हक़ आया। भारतीय अंकों के हिन्दसे बने, जिन्हें बाद में योरोप के लोग अरब से आया मान कर अरैबिक कहने लगे। पंचतन्त्र के कर्कट-दमनक से कलीला-दमना बना। आर्यभट्ट की पुस्तक आर्यभट्टीयम का अनुवाद अरजबंद, अरजबहर नाम से हुआ {सन्दर्भ:- सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 173-174, 167-168, 170-172 वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार }

9वीं शताब्दी में महान समन (श्रमण ) साम्राज्य जो बौद्ध था और सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैला हुआ था, के राजवंश ने इस्लाम को अपना लिया { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 14-15, द न्यू पर्नेल इंग्लिश इनसाइक्लोपीडिया } बग़दाद, दमिश्क, पूरा सीरिया, ईराक़, और तुर्की 11वीं शताब्दी तक बहुत गहरे बौद्ध प्रभाव में थे। इस्लाम ने उनकी स्मृतियाँ नोच-पोंछ कर मिटाई हैं फिर भी 9वीं,10वीं शताब्दी के तुर्की भाषा के अनेकों ग्रन्थ मिले हैं जो बौद्ध ग्रन्थ हैं।{ सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 302-311, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार } सीरिया से हित्ती शासकों के { सम्भवतः यह क्षत्रिय से खत्रिय फिर खत्ती फिर हित्ती बना } के सिक्के मिले हैं जो भगवान शिव, जगदम्बा दुर्गा, कार्तिकेय के चित्र वाले हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 80-90, अरब और भारत के संबंध, रामचंद्र वर्मा, काशी 1954 }

आगे बढ़ते-बढ़ते यह लहर ब्रह्मवर्त के केंद्र की ओर बढ़ी। चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के मैदानी भाग को खोतान कहा जाता है। 5वीं शताब्दी में फ़ाहियान खोतान भी गया था। उसने खोतान की समृद्धि का बयान करते हुए उसे भारतवर्ष के एक राज्य की तरह बताया है। वहां उसने जगन्नाथ जी की यात्रा की तरह की ही रथयात्रा उत्सव का वर्णन किया है। (सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या-5 तथा 51, चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण, नेशनल बुक ट्रस्ट 1996 ) 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण कर उन पर 25 वर्ष तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हो गये।

यह लहर चूँकि प्रारम्भ में ही रोकी न गयी अतः एक दिन इसे भारत के केंद्रीय भाग को स्पर्श करना ही था और यह तत्कालीन भारत के स्कंध यानी ख़ुरासान, अफ़ग़ानिस्तान पहुंची। ख़ुरासान शताब्दियों से भारतीय राज्य था। यहाँ के शासक बाह्लीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी में वह मुसलमान बन गए। इन्हीं के साथ धर्मभ्रष्ट हुए सेवकों में से एक अलप्तगीन गज़नी का शासक बना। गज़नी बाह्लीक राज्य का एक अंग थी। अलप्तगीन के बाद उसका दामाद सुबुक्तगीन यहाँ का शासक बना। इसने आस-पास के क्षेत्र में लूटमार की। यह क्षेत्र राजा जयपाल का था। उन्होंने सेना भेजी। लामघन नामक स्थान पर सुबुक्तगीन को पीटपाट कर भगा दिया गया। इसी सुबुक्तगीन का बेटा महमूद ग़ज़नवी था। इसकी मां क्षत्राणी थी। यह सारे धर्मभष्ट हुए क्षत्रिय थे। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 36-37, 40-42, भाग-1, द हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुस्तान, अलेक्ज़ेंडर दाऊ } इसी तरह मुहम्मद गोरी उत्तरी-पश्चिम हिंदुओं की एक जाति गौर से था। इसी जाति के धर्मभ्रष्ट लोगों में मुहम्मद ग़ौरी था। उसने अपने गांव ग़ौर के बाद सबसे पहले गज़नी की छोटी सी रियासत हथियाई। इसके बाद 1175 में इस्माइलियों के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया। इसके बाद इसने पड़ौस के भट्टी राजपूतों के ठिकाने उच्च पर आक्रमण किया। राजपूतों ने इसे पीट दिया। परिणामतः सन्धि में इसने अपनी बेटी ठिकानेदार को दी। इसने भट्टियों से सहायता ले कर गुजरात के अन्हिलवाड़े पर 1178 में हमला किया। वहां भी धुनाई हुई। भाग कर यह वापस आ गया { सन्दर्भ:- खंड-6, सावरकर समग्र, स्वतंत्रवीर विनायक दामोदर सावरकर }

हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि 7वीं से 17वीं शताब्दी का काल भारत में मुस्लिम शासन का काल है। स्वाभाविक रूप से इसका अर्थ होना चाहिये कि इस काल में सम्पूर्ण वर्तमान भारत के अधिपति इस्लामी थे। वास्तविक स्थिति यह है कि उस काल-खंड में आर्यावर्त यानी वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान में बड़े-बड़े हिन्दू राज्य थे। केवल दिल्ली से आगरा के बीच और शेष भारत में ही छोटी-छोटी मुस्लिम जागीरें थीं। वर्तमान इतिहास में इन्हीं जागीरों को महान सल्तनत बताया जाता है।

विश्वविजय करने वाले सबसे बड़े हिंदू योद्धाओं में से एक पूज्य चंगेज़ ख़ान ने अपनी विश्व-विजय के लिए विवाह सम्बन्धों का सहारा लिया था। वो जिस क्षेत्र को जीतते थे, वहां के पराधीन राजा की पुत्रियों से विवाह करते थे। इससे वह निश्चित कर लेते थे कि अब वह राजा उनके ख़िलाफ़ कभी सिर नहीं उठाएगा। उस राजा की सेना का बड़ा भाग वह अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे। जो अगले सैन्य अभियान में उनका हरावल दस्ता होती थी। हरावल दस्ता यानी युद्ध में बिलकुल आगे और केंद्र में रहने वाले लोग। स्वभाविक है यह लोग अधिकाधिक घायल होते थे या मरते थे। मंगोल सेना अक्षुण्ण बचती थी और परकीय सेना के विरोध में कभी उठ खड़े होने का कांटा भी निकल जाता था। यह तकनीक इस्लामी शासकों ने चंगेज़ ख़ान और उनके प्रतापी वंशजों से सीखी थी चूँकि इन महान योद्धाओं ने ही इन मध्य एशिया के लोगों का कचूमर निकाला था। यही तकनीक मध्य एशिया के इस्लामी अपने साथ लाये। भारत के राजाओं से इसी प्रकार की सन्धियाँ की गयीं। उन्हें सेना का प्रमुख अंग बनाया गया। इस्लाम के धावे वस्तुतः एक हिन्दू शासक की सेनाओं की दूसरे हिन्दू शासक पर हुई विजय हैं। यह इस्लामी पराक्रम नहीं था।

13वीं शताब्दी में बख़्तियार ख़िलजी ने 10 हज़ार घुड़सवारों के साथ बंगाल के प्रसिद्द विद्याकेन्द्र नदिया पर आक्रमण कर 50 हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। पुस्तकालय जल डाला। हज़ारों लोग जान बचाने के लिये मुसलमान हो गए। { सन्दर्भ:- खंड-5, एन एडवांस हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, मैकमिलन, लन्दन, रमेश चंद्र मजूमदार } यह समाचार पा कर कामरूप नरेश सेना ले कर बख़्तियार पर टूट पड़े और उसकी सेना नष्ट कर दी केवल 100 घुड़सवार बचे। दो साल बाद बख़्तियार मर गया। इस मार-काट में बहुधा भरतवंशी विजयी होते रहे मगर एक बहुत चिंतायोग्य बात विस्मृत होती रही कि धर्मभ्रष्ट लोगों की संख्या बढ़ती रही। भरतवंशी समाज एवं देश अपने विद्वानों, आचार्यों, राजाओं के आर्य-नियमन के अभाव में उस रीति-नीति अपनाते गए जो उनकी मूल चिन्तन की घोरद्रोही थी और इस्लामी होते गये। इसे बदला जाना अनिवार्य था।

इसे इस तथ्य से समझ जा सकता है कि अपने वैभव के चरम शिखर पर सम्पूर्ण पंजाब, उसकी राजधानी लाहौर महाराजा रंजीत सिंह का राज्य, उनकी राजधानी थी। 1947 के देश के विभाजन के समय आधा पंजाब और लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बना। कल्पना कीजिये कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने अपने राज्य के सभी मुसलमानों को इस्लाम की ही तरह धर्मपरिवर्तन करने के लिये बाध्य किया होता और हिन्दू बना दिया होता तो क्या यह क्षेत्र पाकिस्तान बनता ? इस संघर्ष में विजय के लिये अनिवार्य रूप से पौरुष चाहिये था। पौरुष की अभिव्यक्ति शस्त्रों के माध्यम से होती है। इस्लामियों को भरतवंशियों ने ढेर कर दिया। मराठे, सिक्ख, राजपूतों ने सत्ता वापस छीन ली।

दैवयोग तब कुटिल अंग्रेज़ आ गये। अंग्रेज़ों ने सचेत रूप से हमें निशस्त्र किया। उन्होंने समझ लिया कि भारत में राज्य चलाने के लिये अनिवार्य रूप से हिंदुओं को दुर्बल करना होगा। इसके लिये उन्होंने 1878 में आर्म्स एक्ट बनाया और हमारे हथियार छीन लिये। स्वयं कोंग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में निष्ट्रीकरण के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। यहाँ यह प्रश्न स्वयं से पूछने का है। अंग्रेज़ सिक्खों, गोरखों, पठानों से तो शस्त्र नहीं ले पाये। सिक्ख सार्वजनिक रूप से तलवार, भाले, कृपाण ले कर चलते हैं। गोरखे आज भी कमर में खुकरी बांधे रहते हैं। आज भी अफ़ग़ानिस्तान में पठान के बिस्तर में बीबी हो या न हो राइफ़ल अवश्य होती है। इन पर निशस्त्रीकरण का क़ानून नहीं लग सका तो हमने शस्त्र क्यों छोड़ दिये ? धर्मबंधुओ, पौरुष का कोई विकल्प नहीं होता। हम सामाजिक, सामूहिक रूप से निर्बल, हततेज फलस्वरूप आत्मसम्मानहीन हो गए। इस हद तक कि कभी कोई न्याय की बात भी हो तो हमारी कोशिश झगड़ा शांत करने, बीचबचाव करने की होती है। हम शताब्दियों से अहिंसा के नाम पर कायर, नपुंसक बनने पर तुले हुए हैं। इस सोच, व्यवहार का कलंक व्यक्तिगत मोक्ष, अहिंसा, त्याग, शांति के दर्शन के माथे पर है। यह गुण व्यक्तिवाचक हो सकते थे मगर हमने इन्हें समाज का गुण बना दिया। परिणामतः गुण कलंक में बदल गये।

यही डरी हुई मासिकता हमारे लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी से दूर कर रही है। हम परमप्रतापी योद्धाओं के वंशज, महान संस्कृति के लोग हैं। हमारा कर्तव्य विश्व को आर्य बनाना है। पाकिस्तानी हिन्दू की रक्षा ही नहीं सम्पूर्ण यूरेशिया के वृषल हो गए लोगों को शुद्ध कर उन्हें वापस आर्य बनाने का महती दायित्व वेद का आदेश है। इसके लिये साम, दाम, दंड, भेद जैसे हो काम करना ही पड़ेगा। इस लक्ष्य को साधना हमारा कर्तव्य है। विजुगीष वृत्ति के लिये पौरुष आवश्यक है। शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चिन्ताम् प्रवर्तते। अपने ही एक शेर से बात समाप्त करता हूँ।

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Re: post from other platform

Post by Anand » Thu Nov 03, 2016 12:34 pm

Hi Pritam sounds about right to me! In addition to the Sikhs (and I don't know about the Gorkhas), the Kurgis (of Coorg District Karnataka) have special status in the Arms Act 1959 applicable only to them. Its not just the British who have given "special" facilities to some while denying others. Post Independence, our Government does this on a regular basis in one form or other, such as for VIPs or bureaucrats, sometimes based on religion or caste or for sportsmen, or for ex-military etc. Mind you, our constitution is very clear that there must not be any discrimination among the citizens of India. Yet, this is a fact of life here.
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Re: post from other platform

Post by goodboy_mentor » Thu Nov 03, 2016 3:26 pm

PRITAM PATEL wrote:Can any one confirm the facts quoted in second last para
Before answering about the second last para, I would like to say that whatever is written most of entire written content is not factually correct. It appears that overall some kind of impression is attempted for creating as if there was/ is some religious war going on between various religious groups. There are many persons belonging to various agencies on the internet with misleading names and ids out to create confusion, disharmony and misunderstandings. This policy of creating confusion, disharmony and misunderstandings was started by the British around 1845 and increased in vigor after the revolt of 1857. Unfortunately it appears it is continued by some conspiratorial, fascist and mischievous interests till now.

On the contrary there is abundant historical evidence that says it was political struggle and not some kind of religious fight. For example Ranjit Singh did not establish his rule to establish some kind of religions hatred or hegemony. On the contrary it was a secular rule. In order to get rid of Bhangi(Bhang drinking) tribe and attacks by Pathans, he was invited by sending a written letter by eighteen eminent citizens of Lahore, out of which sixteen were Muslims and only two were Hindus. This video presented by one of the descendants of Fakir Azizuddin clarifies this -
Similarly the following video illustrates the conspiracies and deceit of the Dogra brothers -
Thus it was not something like Hindu vs Muslim or Sikh or Sikh vs Hindu or Muslim.

And now about second last para. Attack on RKBA in one way or the other has been going on this sub continent much before the arrival of British. But with arrival of British the attack became very systematic and severe. Attack on RKBA in the British rule did not start from 1878, it started after revolt of 1857 itself.

The following may provide you some insight -

viewtopic.php?f=3&t=23554&start=15#p232609

viewtopic.php?t=21023#p204074

viewtopic.php?f=3&t=24502#p242677

viewtopic.php?f=3&t=24502#p242700

viewtopic.php?f=3&t=23906#p239169
Anand wrote:Hi Pritam sounds about right to me! In addition to the Sikhs (and I don't know about the Gorkhas), the Kurgis (of Coorg District Karnataka) have special status in the Arms Act 1959 applicable only to them. Its not just the British who have given "special" facilities to some while denying others. Post Independence, our Government does this on a regular basis in one form or other, such as for VIPs or bureaucrats, sometimes based on religion or caste or for sportsmen, or for ex-military etc. Mind you, our constitution is very clear that there must not be any discrimination among the citizens of India. Yet, this is a fact of life here.
Every one in India is "special"!
The British did not give anyone any special status without any reason. British did not have any problem giving exemption from Arms Act to any social group that was not perceived as a threat to their colonial empire. Thus Kurgis were given exemption. Contrary to some misconceptions that Sikhs were given some exceptions under Arms Act etc. etc., after the annexation of Punjab in 1849, over 120,000 cartloads of arms and swords were confiscated. Please read this post viewtopic.php?f=3&t=24502#p242700 One British official was quoted as saying that unless we crush the heads of the Sikhs under the hoofs of horses, we will not be able to rule over India. There was(probably it is still there) a statue of Henry Lawrence in Lahore, underneath it was written "I shall rule thee with the pen and the sword". Someone may correct me if I am wrong, it was only somewhere around First World War when the British were in trouble, in order to get recruitment of the Sikhs in large numbers in Army to use them as cannon fodder, gave them exemption to keep or wear long swords.

Otherwise what you are saying is almost very true about the matters after 1947.
"If my mother tongue is shaking the foundations of your State, it probably means that you built your State on my land" - Musa Anter, Kurdish writer, assassinated by the Turkish secret services in 1992

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Re: post from other platform

Post by PRITAM PATEL » Fri Nov 04, 2016 10:53 pm

good Boy Mentor,
thnx for reminding me about propaganda being spread on social media,

General mass is not aware about facts, and Ambitious people will keep on spreading bogus fundas

regards

Pritam Patel
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Re: post from other platform

Post by goodboy_mentor » Thu Jan 26, 2017 1:01 pm

Came across additional interesting proof about attack on RKBA in the Indian subcontinent was from Chanakya's quote in In Chapter 1 (Couplet no.15), of Chanakya Neeti says "Do not put your trust in rivers, men who carry weapons, beasts with claws or horns, women, and members of a royal family." It is not surprising the ruling elite that believes in Chanakya's historically self destructive "wisdom" against RKBA and do not trust "men who carry weapons"! Unfortunately they have historically done same self destruction on number of occasions all through the history of this sub continent. And learned nothing from their own history. Using the same logic, how do you trust police and armed forces? Using the same logic those who have pet dogs or cats, how do you trust them with their claws? How do you trust women(especially who carry weapons)?

Also sharing another interesting video about what Pakistanis think about Ranjit Singh's rule, the real history of their land and they were prevented to know the historical truth -
"If my mother tongue is shaking the foundations of your State, it probably means that you built your State on my land" - Musa Anter, Kurdish writer, assassinated by the Turkish secret services in 1992

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